क्या आपने कभी सोचा है कि राष्ट्रपति के बाद दूसरा सबसे संवैधानिक पद कौन सा है? जवाब है — उपराष्ट्रपति। यह पद सिर्फ नाम का नहीं है। उपराष्ट्रपति संसद संचालन और संवैधानिक परंपरा में अहम रोल निभाते हैं। नीचे आसान भाषा में जानिए इसका असली काम, चुनाव कैसे होता है और किन परिस्थितियों में उनकी भूमिका सबसे ज़रूरी हो जाती है।
उपराष्ट्रपति का चुनाव संसद के सदस्यों द्वारा होता है। इसमें दोनों सदन — लोकसभा और राज्यसभा के सांसद वोट देते हैं। चुनाव गुप्त बैलट से होता है और बहुलक आवाज (single transferable vote) का तरीका इस्तेमाल होता है। उम्मीदवार को भारत का नागरिक होना और संवैधानिक रूप से तय उम्र पूरी करनी होती है। चुनने के बाद उपराष्ट्रपति का कार्यकाल पाँच साल का होता है, पर वे तुगि तक बने रह सकते हैं जब तक नया उपराष्ट्रपति चुना नहीं जाता।
सबसे बड़ा काम है: वे राज्यसभा (राज्य परिषद) के सभापति होते हैं। यानी राज्यसभा की कार्यवाही उन्हें संचालित करनी होती है। बहस में नियमों का पालन कराना, सदस्य के बोलने के अधिकार देने और वोटिंग के समय अध्यक्षता करना इनके रोजमर्रा के काम हैं।
अगर संसद में वोट बराबर आ जाए, तो निर्णायक वोट देने का अधिकार उपराष्ट्रपति के पास होता है। यह वह क्षण होता है जब उनकी एक वोट से कानून पास या नाकाम हो सकता है — इसलिए ये फैसला महत्वपूर्ण होता है।
एक और महत्वपूर्ण स्थिति तब आती है जब राष्ट्रपति पद खाली हो जाए या राष्ट्रपति अनुपस्थित हों। ऐसी स्थिति में उपराष्ट्रपति अस्थायी रूप से राष्ट्रपति के सभी संवैधानिक कर्तव्य निभाते हैं जब तक नया राष्ट्रपति चुना नहीं जाता। यह जिम्मेदारी देश के संवैधानिक संतुलन के लिए बहुत अहम होती है।
उपराष्ट्रपति की शक्ति काफी हद तक पारंपरिक और प्रक्रियागत होती है — वे रोज़मर्रा के कार्यों में सक्रिय होते हैं, पर नीति तय करने में सीधे शामिल नहीं होते। उनका काम सिस्टम को सुचारु रखना और संसद की गरिमा बनाए रखना है।
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