DRDO ने चंडीगढ़ में 800 किमी/घंटा की गति से लड़ाकू विमान बचाव प्रणाली का सफल परीक्षण किया
दिस॰, 3 2025
2 दिसंबर 2025 को शाम 8:31 बजे, भारत की रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) ने चंडीगढ़ स्थित टर्मिनल बैलिस्टिक्स रिसर्च लैब (TBRL) के रेल ट्रैक रॉकेट-स्लेड (RTRS) सुविधा पर 800 किमी/घंटा की गति से एक लड़ाकू विमान बचाव प्रणाली का सफल परीक्षण किया। यह परीक्षण केवल एक टेक्निकल डेमो नहीं, बल्कि भारतीय वायु सेना के उड़ान भरने वाले पायलटों की जान बचाने के लिए एक जीवन-रक्षक मilestone था। इस परीक्षण में कैनोपी सेवरेंस, ईजेक्शन सीक्वेंसिंग और पूर्ण एयरक्रू रिकवरी की सफलता साबित हुई — तीन ऐसे घटक जो आज जब विमान आकस्मिक रूप से नियंत्रण खो दे, तो पायलट की जान बचाने का एकमात्र अवसर बन जाते हैं।
क्यों यह परीक्षण इतना खास है?
अधिकांश देश बचाव प्रणालियों का परीक्षण शून्य गति पर करते हैं — जिसे ‘जीरो-जीरो’ टेस्ट कहते हैं। लेकिन यहां कुछ अलग हुआ। इस बार, एक डुअल-स्लेड सिस्टम ने लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (LCA) Tejas के फोरबॉडी को 800 किमी/घंटा की गति से तेजी से धकेला। यह गति वास्तविक लड़ाकू परिस्थितियों में विमान के अचानक विनाश के समय जो बल लगते हैं, उन्हें बिल्कुल नकल करती है।
इस प्रक्रिया में बहुत सारे रॉकेट मोटर्स को फेज़ के आधार पर लगातार जलाया गया। यह तकनीक अभी तक केवल संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, चीन और कुछ यूरोपीय देशों में ही उपलब्ध थी। अब भारत भी इस शीर्ष समूह में शामिल हो गया है।
मानवीय जांच: एक डमी ने जीता जान
इस परीक्षण में कोई वास्तविक पायलट नहीं था — बल्कि एक उन्नत अंथ्रोपोमॉर्फिक टेस्ट डमी (ATD) था, जिसमें 120 से अधिक सेंसर लगे थे। यह डमी पायलट के शरीर के बराबर वजन, आकार और गतिशील व्यवहार दिखाता था। इसने ईजेक्शन के दौरान शरीर पर लगने वाले अधिकतम बल, घूर्णन और त्वरण को रिकॉर्ड किया।
एक मिलीसेकंड तक के अंतर में भी, कैनोपी का टुकड़ा-टुकड़ा होना, सीट का बाहर फेंकना और पैराशूट का खुलना सभी सही समय पर हुआ। ग्राउंड-बेस्ड कैमरों ने इसे 10,000 फ्रेम प्रति सेकंड की रफ्तार से रिकॉर्ड किया। इन डेटा को देखकर इंजीनियर्स ने बताया — ‘हर चरण परफेक्ट रहा।’
कौन-कौन था इसमें शामिल?
यह सफलता किसी एक संगठन की उपलब्धि नहीं है। इसके पीछे DRDO, एयरोनॉटिकल डेवलपमेंट एजेंसी (ADA), हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) और भारतीय वायु सेना (IAF) की टीमें मिलकर काम कर रही थीं। इंस्टीट्यूट ऑफ एयरोस्पेस मेडिसिन के विशेषज्ञ भी इसे देख रहे थे।
DRDO के अध्यक्ष समीर वी. कमत ने कहा, ‘हमने अपनी तकनीकी सीमाओं को फिर से परिभाषित किया है।’ रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने ट्विटर पर लिखा, ‘यह भारत की आत्मनिर्भरता की एक और बड़ी उपलब्धि है।’
चंडीगढ़ की यह अनोखी सुविधा क्या है?
टीबीआरएल का चार किलोमीटर लंबा रेल ट्रैक दुनिया के सबसे कम नंबर वाली ऐसी सुविधाओं में से एक है। 2014 में बनी इस सुविधा ने पहले भी इसरो के गगनयान मिशन के लिए पैराशूट टेस्ट किए हैं। यहां न केवल विमान बचाव प्रणालियां, बल्कि मिसाइल नेविगेशन सिस्टम, प्रॉक्सिमिटी फ्यूज और एयरक्राफ्ट आरेस्टर सिस्टम भी टेस्ट किए जाते हैं।
इसका मतलब है — भारत अब अपनी रक्षा तकनीकों को विदेशी सुविधाओं पर निर्भर नहीं रखता। यह एक अपना बनाया हुआ ‘टेस्ट बेस’ है।
इसका भविष्य पर क्या असर होगा?
अगले दो वर्षों में भारत कई नए लड़ाकू विमानों को अपनाने वाला है — जिसमें टी-एमएस, एफ-एक्स, और नए जीनरेशन ड्रोन शामिल हैं। इन सबके लिए बचाव प्रणालियां अलग-अलग होंगी। अब यह टेस्ट फैक्ट्री उन सभी के लिए एक स्टैंडर्ड बन जाएगी।
इससे पहले, भारत को अपने विमानों के लिए बचाव प्रणालियां विदेश से खरीदनी पड़ती थीं — अमेरिका से एक ईजेक्शन सीट की कीमत 30 लाख रुपये तक होती थी। अब भारतीय निर्मित प्रणाली की लागत उसकी एक चौथाई होगी।
आत्मनिर्भरता की नई लहर
यह परीक्षण उसी दिशा में एक बड़ा कदम है, जिसे DRDO ने अगस्त 2025 में ऑपरेशन सिंदूर के दौरान दिखाया था — जिसमें भारतीय सैन्य प्रणालियों ने पश्चिमी सीमा पर एक बहु-आयामी अभियान में अपनी क्षमता साबित की थी।
अब इस बार बात नहीं है कि कौन लड़ेगा, बल्कि यह है कि वह लड़ाकू कितना सुरक्षित बच सकता है। एक विमान गिर सकता है। लेकिन अगर पायलट बच जाए, तो वह दूसरे विमान में बैठकर फिर से लड़ सकता है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
यह परीक्षण किस तरह से वास्तविक उड़ान परिस्थितियों को नकल करता है?
इस परीक्षण में 800 किमी/घंटा की गति से एक वास्तविक LCA Tejas के फोरबॉडी को रॉकेट-स्लेड पर तेजी से चलाया गया, जो वास्तविक लड़ाकू विमान के अचानक विनाश के समय लगने वाले बलों को बिल्कुल समान बनाता है। इससे पहले जो टेस्ट होते थे, वे शून्य गति पर होते थे — जो वास्तविक लड़ाई की स्थिति को नहीं दर्शाते।
भारत इस तरह की सुविधा के साथ दुनिया में किस जगह पर है?
दुनिया में केवल 5-6 देशों के पास ऐसी सुपरसोनिक रेल ट्रैक सुविधाएं हैं — जैसे अमेरिका का एयर फोर्स रिसर्च लैब, रूस का ग्लुशकोव रिसर्च सेंटर और चीन का लियाओनिंग टेस्ट साइट। भारत अब इस चुनिंदा समूह में शामिल हो गया है, जो अपने खुद के विमानों के लिए बचाव प्रणालियों का परीक्षण स्वयं कर सकता है।
इस परीक्षण से क्या लाभ होगा भारतीय वायु सेना को?
भारतीय वायु सेना के पास अब एक ऐसी तकनीक है जो विमान के बचाव प्रणाली को विदेशी निर्भरता से मुक्त करती है। यह न केवल लागत कम करेगी, बल्कि विमानों की तैनाती और रखरखाव की गति भी बढ़ाएगी। पायलटों की जान बचने की संभावना 95% तक बढ़ सकती है।
क्या यह प्रणाली अगले दशक के लड़ाकू विमानों के लिए भी काम करेगी?
हां। इस टेस्ट सुविधा को डिज़ाइन किया गया है ताकि यह 1200 किमी/घंटा तक की गति तक परीक्षण कर सके। अगले दशक में आने वाले स्टील्थ विमान, हाइपरसोनिक ड्रोन और एआई-चालित लड़ाकू इसी टेस्ट ट्रैक पर अपनी बचाव प्रणालियों के लिए परीक्षण करेंगे।
इस परीक्षण के बाद DRDO की अगली योजना क्या है?
DRDO अगले छह महीनों में एक नया परीक्षण शुरू करेगा — जिसमें एक ईजेक्शन सीट को रात में, बारिश में और अत्यधिक ऊंचाई पर टेस्ट किया जाएगा। यह उन विशेष परिस्थितियों के लिए है जहां पायलट को अचानक ईजेक्ट करना पड़े।
क्या यह तकनीक नागरिक विमानों के लिए भी उपयोगी हो सकती है?
हां, यह तकनीक अगले दशक में भारत के नागरिक विमानन क्षेत्र में भी लागू हो सकती है। विशेष रूप से जब भारत अपने आत्मनिर्भर विमान — जैसे टीएएल-200 — को बाजार में लाएगा, तो इसी बचाव प्रणाली का उपयोग किया जा सकता है, जिससे यात्रियों की सुरक्षा में भी क्रांति आएगी।
